Saturday, October 1, 2011

अब नहीं लगती गांवों में दलानों पर चौपाल

चौपाल
ग्रामीण जीवन का प्राकृतिक स्वरूप अब गांवों में नहीं दिखता और न ही दिखता है वह अपनत्व व भाईचारा जो कुछ दशकों पहले किसी गांव की खासियत हुआ करती थी। ग्रामीणों के आपसी दुख-दर्द की अभिव्यक्ति का मंच, राजनीतिक परिचर्चाओं का मंच तथा अन्यान्य समस्याओं को सुनने तथा उसे दूर करने का ग्रामीण मंच चौपाल अब गांवों की गलियों में नहीं लगती और न ही गांवों वह एकता दिखती है। दो-चार दशक पूर्व तक गावों के मेठ ही उस गांव के सर्वेसर्वा हुआ करते थे और उनका निर्णय सर्वमान्य हुआ करता था। लेकिन दो दशकों से गांवों में वैसी संस्कृति का अभाव सा हो गया है। अब न तो गांवों में बड़े-छोटे के बीच वह अनुशासन दिखता है और न ही वह शालीनता। राजनीतिक चेतना आ जाने से गांवों में विकास की जगह गुटबंदी बढ़ गई है। विभिन्न दलों से जुड़े ग्रामीण अब अपनी औकात व शान-ए-शौकत दिखाने में जुटे हैं लिहाजा गांवों में एकजुटता का अभाव साफ परिलक्षित होता है। दमन व शोषण के खिलाफ आवाज उठाने वाले पंच परमेश्वरों का अस्तित्व भी अब गांवों में समाप्त हो गया है। संघर्ष के बाद लोग सीधे मुकदमें करने को तत्पर रहते हैं। ग्रामीण खपरैल व फूस के घरों से गुलजार गांव का रूप अब पक्के मकानों ने ले लिया है। फूस-लकड़ियों व गोयठों से जलने वाले चूल्हे अब गांवों की विशिष्ट पहचान नहीं रह गई है। गैस चूल्हों की डिमांड वहां भी होने लगी। घरों की बाहरी दीवारों पर जलावन के उद्देश्य से ठोके गए गोयठे अब गांवों में कम ही देखने को मिलते हैं। दादा, काका, भैया के संबोधन से खुशहाल ग्रामीण जीवन अब रंजिश के संबोधन से आबद्ध हो चुका है। न तो गांवों में अब जांता व ढेंकी का प्रचलन रह गया है और नही किसी खास मेहमान के पहुंचने पर शरबत पिलाने की रस्म। संयुक्त परिवार तो अब गांवों में कम ही दिखते हैं। एकल परिवार भी ऐसा कि जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं।

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